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ग़ैरों को अता और जफ़ा मेरे लिए है | शाही शायरी
ghairon ko ata aur jafa mere liye hai

ग़ज़ल

ग़ैरों को अता और जफ़ा मेरे लिए है

नूर मोहम्मद नूर

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ग़ैरों को अता और जफ़ा मेरे लिए है
ख़ुश हूँ कि मोहब्बत की सज़ा मेरे लिए है

ख़ुश हो के अभी तेशा-ए-फ़र्हाद उठा ले
ऐ इश्क़ ये क़ुदरत की अता मेरे लिए है

तुम जो भी करो मालिक-ओ-मुख़्तार हो साहब
पाबंदी-ए-पैमान-ए-वफ़ा मेरे लिए है

खुल पाएगा कब उक़्दा-ए-राज़-ए-दिल-ए-बुलबुल
रहने दो उसे काम मिरा मेरे लिए है

जाएँगे कहाँ छोड़ के ये ज़ीस्त के सामाँ
ये बाग़ ये जन्नत की हवा मेरे लिए है

कुछ रब्त नहीं ग़ैर का उन से ग़म-ए-दौराँ
ये बर्क़ ये तूफ़ान-ए-बला मेरे लिए है

क्यूँ 'नूर' झुकाते कहीं अपना सर-ए-अक़दस
दर तेरा जो सज्दे को बना मेरे लिए है