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ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें | शाही शायरी
ghair puchhen bhi to hum kya apna afsana kahen

ग़ज़ल

ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें

अली जव्वाद ज़ैदी

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ग़ैर पूछें भी तो हम क्या अपना अफ़्साना कहें
अब तो हम वो हैं जिसे अपने भी बेगाना कहें

वो भी वक़्त आया कि दिल में ये ख़याल आने लगा
आज उन से हम ग़म-ए-दौराँ का अफ़्साना कहें

क्या पुकारे जाएँगे हम ऐसे दीवाने वहाँ
होश-मंदों को भी जिस महफ़िल में दीवाना कहें

शब के आख़िर होते होते दोनों ही जब जल बुझे
किस को समझें शम-ए-महफ़िल किस को परवाना कहें

और कुछ कहना तो गुस्ताख़ी है शान-ए-शैख़ में
हाँ मगर ना-वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-मय-ख़ाना कहें

आज तन्हाई में फिर आँखों से टपका है लहू
जी के बहलाने को आओ अपना अफ़्साना कहें

उन से रौनक़ क़त्ल-गह की उन से गर्मी बज़्म की
कहने वाले अहल-ए-दिल को लाख दीवाना कहें

हैं बहम मौज-ए-शराब ओ सैल-ए-अश्क ओ जू-ए-ख़ूँ
लाइक़-ए-सज्दा है जिस को ख़ाक-ए-मय-ख़ाना कहें

उन की इस चीन-ए-जबीं का कुछ तक़ाज़ा हो मगर
क्या ग़म-ए-दिल की हक़ीक़त को भी अफ़्साना कहें