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ग़ैर-मुमकिन भी है मुमकिन मुझे मा'लूम न था | शाही शायरी
ghair-mumkin bhi hai mumkin mujhe malum na tha

ग़ज़ल

ग़ैर-मुमकिन भी है मुमकिन मुझे मा'लूम न था

बिस्मिल सईदी

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ग़ैर-मुमकिन भी है मुमकिन मुझे मा'लूम न था
एक दिन आएगा ये दिन मुझे मा'लूम न था

और कुछ मैं तिरे ज़ाहिर से समझता था तुझे
और कुछ है तिरा बातिन मुझे मा'लूम न था

अपने दामान-ए-तसन्नो' में छुपा सकते हैं
उन मआइब को महासिन मुझे मा'लूम न था

दुश्मनी के लिए मख़्सूस है जो तर्ज़-ए-अमल
दोस्ती में है वो मुमकिन मुझे मा'लूम न था

आह हो सकती है बेदाद पे माइल वो नज़र
हो जो अल्ताफ़ की ज़ामिन मुझे मा'लूम न था

उम्र-भर सब्र न आएगा मुझे जिस के बग़ैर
चैन पाएगा वो मुझ बिन मुझे मा'लूम न था

बाहमा गर्मी-ए-दिल नब्ज़-ए-मोहब्बत इक दिन
हो के रह जाएगी साकिन मुझे मा'लूम न था

आह इस उम्र-ए-मोहब्बत में कभी ऐ 'बिस्मिल'
एक दिन आएगा ये दिन मुझे मा'लूम न था