ग़ैर को तुम न आँख भर देखो
क्या ग़ज़ब करते हो इधर देखो
ख़ाक में मत मिलाओ दिल को मिरे
जी में समझो टुक अपना घर देखो
देखना ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ तुम्हें हर वक़्त
शाम देखो न तुम सहर देखो
गुल हुए जाते हैं चराग़ की तरह
हम को टुक जल्द आन कर देखो
आप पे अपना इख़्तियार नहीं
जब्र है हम पर किस क़दर देखो
राम बातों में तो वो हो न सका
नक़्श ओ अफ़्सूँ भी कोई कर देखो
लख़्त-ए-दिल तुम न समझो मिज़्गाँ पर
आशिक़ी का ये है समर देखो
वस्ल होता नहीं भला क्यूँकर
अपनी हस्ती से तो गुज़र देखो
देखते ही नहीं तो क्या कहिए
कहिए तब हाल कुछ अगर देखो
ढलते हो तुम बुताँ उधर दिल से
आज-कल जिस के हाथ ज़र देखो
इश्क़-बाज़ी से बाज़ आओ 'हसन'
छोड़ दो अपना ये हुनर देखो
ग़ज़ल
ग़ैर को तुम न आँख भर देखो
मीर हसन