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ग़ैर की आग में कोई भी न जलना चाहे | शाही शायरी
ghair ki aag mein koi bhi na jalna chahe

ग़ज़ल

ग़ैर की आग में कोई भी न जलना चाहे

शाहिद इश्क़ी

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ग़ैर की आग में कोई भी न जलना चाहे
एक परवाना जो ये रीत बदलना चाहे

दिल कि हर गहरे समुंदर में उतरना चाहे
तेज़-रौ उम्र कि दम-भर न ठहरना चाहे

क़िस्मत ऐसी कि जो अपने थे हुए बेगाने
और दिल वो जो किसी से न बिछड़ना चाहे

ज़र्रा ज़र्रा जिसे इक उम्र समेटा है वो ज़ात
सिर्फ़ इक ठेस पहुँचने पे बिखरना चाहे

ज़ख़्म हर संग-ए-मलामत अभी ताज़ा है ये दिल
फिर उसी कू-ए-मलामत से गुज़रना चाहे