ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ
मैं बयाबानों में रोने को निकल जाता हूँ
जोश वहशत का हुआ मौसम-ए-गुल आ पहुँचा
कुछ दिनों होश में रहता हूँ सँभल जाता हूँ
अपनी रुख़्सत है बुतों से भी अब इंशा-अल्लाह
दैर से सू-ए-हरम आज ही कल जाता हूँ
कूचा-ए-क़ातिल-ए-बे-रहम जिसे कहते हैं
मैं वहाँ दौड़ के मुश्ताक़-ए-अजल जाता हूँ
जब निकलने नहीं देते हैं मुझे ज़िंदाँ से
अपने आपे से मैं नाचार निकल जाता हूँ
ग़ैर अलबत्ता तिरे पाँव में मलते हैं हिना
मैं तो आ कर कफ़-ए-अफ़्सोस ही मल जाता हूँ
मैं जो रोता हूँ तो कहता है न कर बद-शगुनी
बात कहता है वो ऐसी कि दहल जाता हूँ
दोस्त होता है तो होता है वो दुश्मन ऐ 'मेहर'
वो बदल जाता है या कुछ मैं बदल जाता हूँ

ग़ज़ल
ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ
हातिम अली मेहर