ग़ैर-ए-तवक्कुल नहीं चारा मुझे
अपने ही दम का है सहारा मुझे
हिर्स-ओ-तमअ ने तो डुबोया ही था
सब्र-ओ-क़नाअत ने उभारा मुझे
जो वो कहे उस को सज़ा-वार है
चून-ओ-चरा का नहीं यारा मुझे
बे-अदबों की अदब-आमोज़ियाँ
इन के बिगड़ने ने सँवारा मुझे
कोशिश-ए-बे-सूद मुशव्वश न कर
क़अर न बन जाए किनारा मुझे
ज़िश्ती-ए-पिंदार दिलाता है याद
क़िस्सा-ए-असकंदर-ओ-दारा मुझे
नंग-ए-मुज़िल्लत से छुड़ा ले गया
जोश-ए-हमिय्यत का हरारा मुझे
औज-ए-मआली पे उड़ा ले गया
तौसन-ए-हिम्मत का तरारा मुझे
आह नहीं रुख़्सत-ए-इफ़शा-ए-राज़
क़िस्सा तो मालूम है सारा मुझे
फ़ुर्सत-ए-औक़ात है बस मुग़्तनिम
ये नहीं मिलने की दोबारा मुझे
ग़ज़ल
ग़ैर-ए-तवक्कुल नहीं चारा मुझे
इस्माइल मेरठी