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ग़ैर-ए-तवक्कुल नहीं चारा मुझे | शाही शायरी
ghair-e-tawakkul nahin chaara mujhe

ग़ज़ल

ग़ैर-ए-तवक्कुल नहीं चारा मुझे

इस्माइल मेरठी

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ग़ैर-ए-तवक्कुल नहीं चारा मुझे
अपने ही दम का है सहारा मुझे

हिर्स-ओ-तमअ ने तो डुबोया ही था
सब्र-ओ-क़नाअत ने उभारा मुझे

जो वो कहे उस को सज़ा-वार है
चून-ओ-चरा का नहीं यारा मुझे

बे-अदबों की अदब-आमोज़ियाँ
इन के बिगड़ने ने सँवारा मुझे

कोशिश-ए-बे-सूद मुशव्वश न कर
क़अर न बन जाए किनारा मुझे

ज़िश्ती-ए-पिंदार दिलाता है याद
क़िस्सा-ए-असकंदर-ओ-दारा मुझे

नंग-ए-मुज़िल्लत से छुड़ा ले गया
जोश-ए-हमिय्यत का हरारा मुझे

औज-ए-मआली पे उड़ा ले गया
तौसन-ए-हिम्मत का तरारा मुझे

आह नहीं रुख़्सत-ए-इफ़शा-ए-राज़
क़िस्सा तो मालूम है सारा मुझे

फ़ुर्सत-ए-औक़ात है बस मुग़्तनिम
ये नहीं मिलने की दोबारा मुझे