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गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में | शाही शायरी
gain yaron se wo agli mulaqaton ki sab rasMein

ग़ज़ल

गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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गईं यारों से वो अगली मुलाक़ातों की सब रस्में
पड़ा जिस दिन से दिल बस में तिरे और दिल के हम बस में

कभी मिलना कभी रहना अलग मानिंद मिज़्गाँ के
तमाशा कज-सिरिश्तों का है कुछ इख़्लास के बस में

तवक़्क़ो' क्या हो जीने की तिरे बीमार-ए-हिज्राँ के
न जुम्बिश नब्ज़ में जिस की न गर्मी जिस के मलमस में

दिखाए चीरा-दस्ती आह बालादस्त गर अपनी
तो मारे हाथ दामान-ए-क़यामत चर्ख़-ए-अतलस में

जो है गोशा-नशीं तेरे ख़याल-ए-मस्त-ए-अबरू में
वो है बैतुस-सनम में भी तो है बैतुल-मुक़द्दस में

करे लब-आश्ना हर्फ़-ए-शिकायत से कहाँ ये दम
तिरे महज़ून-ए-बे-दम में तिरे मफ़्तून-ए-बेकस में

हवा-ए-कू-ए-जानाँ ले उड़े उस को तअ'ज्जुब क्या
तन-ए-लाग़र में है जाँ इस तरह जिस तरह बू ख़स में

मुझे हो किस तरह क़ौल-ओ-क़सम का ए'तिबार उन के
हज़ारों दे चुके वो क़ौल लाखों खा चुके क़स्में

हुए सब जम्अ' मज़मूँ 'ज़ौक़' दीवान-ए-दो-आलम के
हवास-ए-ख़मसा हैं इंसाँ के वो बंद-ए-मुख़म्मस में