EN اردو
गई फ़स्ल-ए-बहार गुलशन से | शाही शायरी
gai fasl-e-bahaar gulshan se

ग़ज़ल

गई फ़स्ल-ए-बहार गुलशन से

मर्दान अली खां राना

;

गई फ़स्ल-ए-बहार गुलशन से
बुलबुलों उड़ चलो नशेमन से

फ़ातिहा भी पढ़ा न तुर्बत पर
जा के लौट आए मेरी मदफ़न से

मुझ को काफ़ी थी क़ैद-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़
बेड़ियाँ क्यूँ बनाईं आहन से

ज़ुल्फ़ के पेच से न रह ग़ाफ़िल
दोस्ती कर दिला न दुश्मन से

हो गरेबाँ का चाक ख़ाक रफ़ू
तार हाथ आए जब न दामन से

नाज़-ओ-इश्वा नया नहीं सीखा
शोख़ तर्रार है लड़कपन से

छोड़ कर तुम अगर गए तन्हा
जी निकल जाएगा मिरे तन से

है कई दिन से मुंतज़िर 'रा'ना'
जल्वा दिखलाओ आ के चिलमन से