गहरी आँखों में ये कैसी है बिछड़ती महफ़िलों की रौशनी
अजनबी लोगों में देखी मैं ने अपने दोस्तों की रौशनी
मंज़िलों पर वो पहुँच कर भी अभी तक मंज़िलों जैसा नहीं
उस की सोचों से बंधी है रास्ते के मंज़रों की रौशनी
उस के मेरे दरमियाँ पाकीज़गी का रक़्स तो होता नहीं
एक पर्दे की तरह रहती है नंगी ख़्वाहिशों की रौशनी
मैं ने उस को ख़्वाब में देखा तो वो इक और ही दुनिया में था
उस के हर जानिब बिखरती जा रही थी रत-जगों की रौशनी
अब तो उस का दर्द भी 'अजमल' समुंदर की तरह गहरा नहीं
इस जज़ीरे में भटकती है अकेले साहिलों की रौशनी

ग़ज़ल
गहरी आँखों में ये कैसी है बिछड़ती महफ़िलों की रौशनी
मोहम्मद अजमल नियाज़ी