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गहे मकाँ से सुनी गाह-ए-ला-मकाँ से सुनी | शाही शायरी
gahe makan se suni gah-e-la-makan se suni

ग़ज़ल

गहे मकाँ से सुनी गाह-ए-ला-मकाँ से सुनी

नाज़ क़ादरी

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गहे मकाँ से सुनी गाह-ए-ला-मकाँ से सुनी
शिकस्त-ए-दिल की सदा क्या कहूँ कहाँ से सुनी

न बू-ए-गुल ने कहा कुछ न तो सबा ने कहा
हदीस-ए-बर्क़-ओ-शरर हम ने आशियाँ से सुनी

तमाम हासिल-ए-अय्याम जिस सफ़र में लुटा
वो दास्तान-ए-सफ़र उम्र-ए-राएगाँ से सुनी

ज़माना मंज़िल-ए-गुम-गश्ता की तलाश में है
ये बात उड़ती हुई गर्द-ए-कारवाँ से सुनी

है ज़िंदगी से जो तख़्लीक़-ए-फ़न का रिश्ता 'नाज़'
तमाम उम्र ये आवाज़ साज़-ए-जाँ से सुनी