ग़फ़लत अजब है हम को दम जिस का मारते हैं
मौजूद है नज़र में जिस को पुकारते हैं
हम आईना हैं हक़ के हक़ आईना है अपना
मस्ती में अपनी हर दम दम हक़ का मारते हैं
हम अपने आप तालिब मतलूब आप हम हैं
इस खेल में हमेशा हम ख़ुद को हारते हैं
जन्नत की हम को ख़्वाहिश दोज़ख़ का डर नहीं है
बे-अस्ल मुफ़्त वाइ'ज़ हम को उभारते हैं
ज़ाहिर है हक़ का जल्वा गर आँख हो तो देखे
'मरकज़' ख़ुदा को आलम भूले पुकारते हैं

ग़ज़ल
ग़फ़लत अजब है हम को दम जिस का मारते हैं
यासीन अली ख़ाँ मरकज़