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गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से | शाही शायरी
gae hain jab se wo uTh ke yan se hai haal bahar mera bayan se

ग़ज़ल

गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से

निज़ाम रामपुरी

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गए हैं जब से वो उठ के याँ से है हाल बाहर मिरा बयाँ से
कहे कोई इतना जान-ए-जाँ से मिलो नहीं तो गया में जाँ से

जो कुछ गुज़रता है मेरे दिल पर सुनाऊँ किस को वो हाए दिलबर
ख़ुदा करे फिर वो दिन मयस्सर कहूँ मैं अपनी ही सब ज़बाँ से

कभी ख़फ़ा हो के बात करना कभी वो कह कह के फिर मुकरना
फिर उल्टा बोहतान मुझ पे धरना ये तर्ज़ तुम ने लिया कहाँ से

कभी तिरे ग़म में मुझ को रोना कभी फिर आफी है चुपके होना
जो याद आता है साथ सोना तो रात कटती है किस फ़ुग़ाँ से

घड़ी घड़ी हिज्र की है बहारी दिखाए सूरत ख़ुदा तुम्हारी
सुनूँ वो बातें पियारी पियारी अजब अदा से अजब बयाँ से

तिरा ख़फ़ा हो के रूठ जाना वो मिन्नतों से मिरा मनाना
वो अपनी अपनी सी कुछ सुनाना वो बातें भी आप दिल-सिताँ से

अजब ही दुश्मन से दोस्ती की कि शक्ल अब है ये ज़िंदगी की
लबों पे चक्की है जाँ-कनी की पड़े हैं बेहोश नीम-जाँ से

कहा कुछ उस ने यहाँ किसी से ये बात क़ासिद नहीं हँसी से
गुमान होता है और ही से तिरे उलझते हुए बयाँ से

'निज़ाम' क्यूँ तू ने उस को चाहा ये दिल में क्या थी जो दिल लगाया
जो देवे तौफ़ीक़ कुछ भी मौला तो अब न मिलना कभी बुताँ से