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ग़ाज़ा तो तिरा उतर गया था | शाही शायरी
ghaza to tera utar gaya tha

ग़ज़ल

ग़ाज़ा तो तिरा उतर गया था

सिद्दीक़ अफ़ग़ानी

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ग़ाज़ा तो तिरा उतर गया था
मैं देख के ख़ुद को डर गया था

इस शहर में रास्ते का पत्थर
मैं जंगलों से गुज़र गया था

तहरीर-ए-जबीं मिटी हुई थी
तक़दीर का ज़ख़्म भर गया था

बे-नूर थी झील भी कँवल से
सूरज भी ख़ला में मर गया था

एहसास शबाब ग़म मोहब्बत
एक एक नशा उतर गया था

दिल को वो सुकूँ मिला तिरे पास
जैसे मैं नगर नगर गया था

क्या चीज़ थी बाद-ए-सुब्ह-गाही
रू-ए-गुल-ए-तर निखर गया था

हमराह थे अन-गिनत ज़माने
मैं दश्त से अपने घर गया था

नज़रों का मिलाप कौन भूले
इक सानेहा सा गुज़र गया था

इक़रार-ए-वफ़ा किया था उस ने
मैं फ़र्त-ए-ख़ुशी से मर गया था

'सिद्दीक़' चली थी तेज़ आँधी
मिट्टी का बदन बिखर गया था