EN اردو
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं | शाही शायरी
ghaaliban mere alawa koi guzra bhi nahin

ग़ज़ल

ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं

सबा अकबराबादी

;

ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
तेरी मंज़िल में कहीं नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं

आप की राह में दुनिया नज़र आती है मुझे
इक क़दम और जो बढ़ जाऊँ तो दुनिया भी नहीं

आप क्या सोच के ग़म अपना अता करते हैं
हिम्मत-ए-दिल तो ब-क़द्र-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं

तुम तो बे-मिस्ल हो तौहीद-ए-मोहब्बत की क़सम
तुम सा क्या होगा जहाँ में कोई मुझ सा भी नहीं

हश्र की भीड़ में एक एक का मुँह तकता हूँ
इस भरी-बज़्म में इक जानने वाला भी नहीं

हुस्न ने दावत-ए-नज़्ज़ारा हर इक रंग से दी
इश्क़ ने आँख उठा कर कभी देखा भी नहीं

एक तुम हो कि तमन्नाओं के दुश्मन ही रहे
एक मैं हूँ मुझे एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं

जुज़्व-ए-दिल बन के समाती है मोहब्बत दिल में
ये वो काँटा है कि है और खटकता भी नहीं

याद आती है 'सबा' बे-वतनों की किस को
मुझ को यारान-ए-वतन से कोई शिकवा भी नहीं