ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
तेरी मंज़िल में कहीं नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं
आप की राह में दुनिया नज़र आती है मुझे
इक क़दम और जो बढ़ जाऊँ तो दुनिया भी नहीं
आप क्या सोच के ग़म अपना अता करते हैं
हिम्मत-ए-दिल तो ब-क़द्र-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं
तुम तो बे-मिस्ल हो तौहीद-ए-मोहब्बत की क़सम
तुम सा क्या होगा जहाँ में कोई मुझ सा भी नहीं
हश्र की भीड़ में एक एक का मुँह तकता हूँ
इस भरी-बज़्म में इक जानने वाला भी नहीं
हुस्न ने दावत-ए-नज़्ज़ारा हर इक रंग से दी
इश्क़ ने आँख उठा कर कभी देखा भी नहीं
एक तुम हो कि तमन्नाओं के दुश्मन ही रहे
एक मैं हूँ मुझे एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
जुज़्व-ए-दिल बन के समाती है मोहब्बत दिल में
ये वो काँटा है कि है और खटकता भी नहीं
याद आती है 'सबा' बे-वतनों की किस को
मुझ को यारान-ए-वतन से कोई शिकवा भी नहीं
ग़ज़ल
ग़ालिबन मेरे अलावा कोई गुज़रा भी नहीं
सबा अकबराबादी