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'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा | शाही शायरी
ghaalib-o-yagana se log bhi the jab tanha

ग़ज़ल

'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा

हबीब जालिब

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'ग़ालिब'-ओ-'यगाना' से लोग भी थे जब तन्हा
हम से तय न होगी क्या मंज़िल-ए-अदब तन्हा

फ़िक्र-ए-अंजुमन किस को कैसी अंजुमन प्यारे
अपना अपना ग़म सब का सोचिए तो सब तन्हा

सुन रखो ज़माने की कल ज़बान पर होगी
हम जो बात करते हैं आज ज़ेर-ए-लब तन्हा

अपनी रहनुमाई में की है ज़िंदगी हम ने
साथ कौन था पहले हो गए जो अब तन्हा

मेहर-ओ-माह की सूरत मुस्कुरा के गुज़रे हैं
ख़ाक-दान-ए-तीरा से हम भी रोज़-ओ-शब तन्हा

कितने लोग आ बैठे पास मेहरबाँ हो कर
हम ने ख़ुद को पाया है थोड़ी देर जब तन्हा

याद भी है साथ उन की और ग़म-ए-ज़माना भी
ज़िंदगी में ऐ 'जालिब' हम हुए हैं कब तन्हा