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फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं | शाही शायरी
fitne jo kai shakl-e-karishmat uThe hain

ग़ज़ल

फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं

शानुल हक़ हक़्क़ी

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फ़ित्ने जो कई शक्ल-ए-करिश्मात उठे हैं
कुछ दिल में अनोखे से ख़यालात उठे हैं

महफ़िल में वो जब बहर-ए-मुलाक़ात उठे हैं
हमराज़ से करते हुए कुछ बात उठे हैं

आँधी तो अभी सहन-ए-चमन तक नहीं पहुँची
इक झोंके से सूखे हुए कुछ पात उठे हैं

हिर-फिर के वही सामने था पर्दा-ए-औहाम
कहने ही को आँखों से हिजाबात उठे हैं

मन मस्त हैं इस तरह रवाँ नफ़्स के पीछे
सर करने को गोया कि मुहिम्मात उठे हैं

ऐ शैख़ न ये कुफ़्र न फ़ित्ना है न शर है
इक हम भी सुनाने को नई बात उठे हैं

सैराबी-ए-जाँ देख कि हम बज़्म से उस की
आँखों में बसाए हुए बरसात उठे हैं