फ़ित्ना-सामाँ ही नहीं फ़ित्ना-ए-सामाँ निकले
आप तो ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-दिल-ओ-जाँ निकले
बे-ख़ुदी में जिसे हम समझे हैं तेरा दामन
ऐन मुमकिन है कि अपना ही गरेबाँ निकले
दिल पे धुँदले से निशाँ थे जो ग़म-ए-दुनिया के
वो भी दर-पर्दा नुक़ूश-ए-ग़म-ए-जानाँ निकले
फिर वही हम वही बे-रौनक़ी-ए-दीदा-ओ-दिल
हुस्न के शो'बदे इक ख़्वाब-ए-गुरेज़ाँ निकले
दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद भी इक दौलत है
अहल-ए-ग़म भी तिरे शर्मिंदा-ए-एहसाँ निकले
जिन से आराइश-ए-ईमाँ की तवक़्क़ो' थी 'अज़ीम'
हादिसा है कि वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ निकले
ग़ज़ल
फ़ित्ना-सामाँ ही नहीं फ़ित्ना-ए-सामाँ निकले
अज़ीम मुर्तज़ा