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फ़िशार-ए-तीरह-शबी से सहर निकल आए | शाही शायरी
fishaar-e-tirah-shabi se sahar nikal aae

ग़ज़ल

फ़िशार-ए-तीरह-शबी से सहर निकल आए

आमिर नज़र

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फ़िशार-ए-तीरह-शबी से सहर निकल आए
सियाह रेत पे कोई शजर निकल आए

मैं अपनी ज़ात की दीवार पर हूँ महव-ए-क़लम
भले ही सूरत-ए-मेहराब-ओ-दर निकल आए

शिकस्ता ख़्वाब के रेज़े ज़मीन-ए-वहशत से
बरहनगी की क़बा ओढ़ कर निकल आए

मिरे गुमान के दीपक न जल सके शब-भर
पस-ए-यक़ीं जो जले बेशतर निकल आए

निगाह-ए-शीशा-ए-हसरत में क़ैद हो जाते
ये और बात कि हम वक़्त पर निकल आए

मैं संग-ए-यास पे तहरीर कर रहा था कुछ
कि लफ़्ज़ चंद बड़े मो'तबर निकल आए

सियाह रात की तस्वीर पर शिकन से अभी
अजब नहीं है कि 'आमिर' नज़र निकल आए