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फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है | शाही शायरी
fikr yahi hai har ghaDi gham yahi subh o sham hai

ग़ज़ल

फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है

निज़ाम रामपुरी

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फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है
गर न मिला वो कुछ दिनों काम यहाँ तमाम है

अब हैं हमारे नाम पर सैकड़ों गालियाँ ये लुत्फ़
कहते थे तुम मियाँ मियाँ वो ही तो ये ग़ुलाम है

ख़ैर न मिलिए रोज़ रोज़ यूँही सही कभी कभी
उस से भी इंहिराफ़ है इस में भी कुछ कलाम है

ऐ दिल-ए-बे-क़रार कुछ कर वो रुके तो रुकने दे
फ़ाएदा इज़्तिराब से सब्र का ये मक़ाम है

कोई कहे बुरा भला कोई अदू हो या हो दोस्त
और किसी से काम क्या आप से मुझ को काम है

हाए हर इक की वो सुने कुछ मैं कहूँ तो ये कहे
आप न मुझ से कुछ कहें आप से कब कलाम है

आज हैं हम तो जाँ-ब-लब कल को गर आए भी हुसूल
तुम को किसी से क्या ग़रज़ अपनी ख़ुशी से काम है

ये भी ग़ज़ब का रश्क है ख़त तो है नाम-ए-ग़ैर पर
और लिफ़ाफ़े पर लिखा सहव से मेरा नाम है

किस को क्या शहीद-ए-नाज़ किस की हुई वफ़ा पसंद
कहते हैं उन के दर पर आज ख़ल्क़ का अज़दहाम है

अब हैं फ़रेब किस लिए होगा यक़ीं किसी को अब
तुम से वफ़ा की आरज़ू ये भी ख़याल-ए-ख़ाम है

तौबा का याँ किसे ख़याल मय को समझते हैं हलाल
जिस के लिए हराम है उस के लिए हराम है

दिन हो तो आफ़तें ये कुछ रात हो तो ये कुछ सितम
कैसी हमारी सुब्ह है कैसी हमारी शाम है

हिज्र के वो सितम सहे अब न रही हवा-ए-वस्ल
हाल यही है नामा-बर ये ही मिरा पयाम है

सुन के मिरी फ़ुग़ाँ का शोर पूछा किसी ने कौन है
बोले सुना न होगा क्या, ये तो वही 'निज़ाम' है