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फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ | शाही शायरी
fikr o ehsas ke tapte hue manzar tak aa

ग़ज़ल

फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ

सरदार सलीम

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फ़िक्र ओ एहसास के तपते हुए मंज़र तक आ
मेरे लफ़्ज़ों में उतर कर मिरे अंदर तक आ

कहीं ऐसा न हो कि रुक जाएँ क़लम की साँसें
ऐ मिरी जान-ए-ग़ज़ल अपने सुख़न-वर तक आ

वर्ना ख़्वाबों की तपिश तुझ को जला डालेगी
मेरी जागी हुई नींदों के समुंदर तक आ

सर्द कमरे की सुलगती हुई तन्हाई में
मेरी साँसों से निकल कर मिरे बिस्तर तक आ

दर-ओ-दीवार मोअत्तर हों तिरी ख़ुश्बू से
दिल में मत आ मगर इक बार मिरे घर तक आ

उस से कहना है 'सलीम' अगली मुलाक़ात में ये
ख़्वाब बन कर कभी आँखों के मुक़द्दर तक आ