EN اردو
फ़िक्र का कारोबार था मुझ में | शाही शायरी
fikr ka karobar tha mujh mein

ग़ज़ल

फ़िक्र का कारोबार था मुझ में

विकास शर्मा राज़

;

फ़िक्र का कारोबार था मुझ में
एक रौशन दयार था मुझ में

दाग़ जैसा कहीं कहीं है अब
तू कभी बे-शुमार था मुझ में

मैं तो अपने बदन से बाहर था
कौन फिर बे-क़रार था मुझ में

वो उदासी ज़ईफ़ थी लेकिन
एक आसाँ शिकार था मुझ में

जाने कितने ख़याल काम पे थे
किस क़दर रोज़गार था मुझ में

अब वो बादल भी है समुंदर भी
जो महज़ रेगज़ार था मुझ में

हुई बरसात तो ये भेद खुला
कितना गर्द-ओ-ग़ुबार था मुझ में