फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ
चाहता हूँ एक दिल में दो मकाँ पैदा करूँ
तब-ए-आली से अगर औज-ए-बयाँ पैदा करूँ
मैं ज़मीन-ए-शेर में भी आसमाँ पैदा करूँ
हूँ मैं वो दिल-सोख़्ता तासीर-ए-आह-ए-गर्म से
गुलशन-ए-जन्नत में भी दौर-ए-ख़िज़ाँ पैदा करूँ
पाँव कहते हैं तिरे कूचे में आ कर ज़ोफ़ से
तू गिरा दे और मैं ख़्वाब-ए-गिराँ पैदा करूँ
अब भी तुम आओ तो मैं आँखों में बहर-ए-यक-नज़र
ढूँड कर थोड़ी सी जान-ए-ना-तवाँ पैदा करूँ
मैं हूँ ऐ 'तस्लीम' शागिर्द-ए-'नसीम'-ए-देहलवी
चाहिए उस्ताद का तर्ज़-ए-बयाँ पैदा करूँ
ग़ज़ल
फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ
अमीरुल्लाह तस्लीम