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फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ | शाही शायरी
fikr hai shauq-e-kamar ishq-e-dahan paida karun

ग़ज़ल

फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ

अमीरुल्लाह तस्लीम

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फ़िक्र है शौक़-ए-कमर इश्क़-ए-दहाँ पैदा करूँ
चाहता हूँ एक दिल में दो मकाँ पैदा करूँ

तब-ए-आली से अगर औज-ए-बयाँ पैदा करूँ
मैं ज़मीन-ए-शेर में भी आसमाँ पैदा करूँ

हूँ मैं वो दिल-सोख़्ता तासीर-ए-आह-ए-गर्म से
गुलशन-ए-जन्नत में भी दौर-ए-ख़िज़ाँ पैदा करूँ

पाँव कहते हैं तिरे कूचे में आ कर ज़ोफ़ से
तू गिरा दे और मैं ख़्वाब-ए-गिराँ पैदा करूँ

अब भी तुम आओ तो मैं आँखों में बहर-ए-यक-नज़र
ढूँड कर थोड़ी सी जान-ए-ना-तवाँ पैदा करूँ

मैं हूँ ऐ 'तस्लीम' शागिर्द-ए-'नसीम'-ए-देहलवी
चाहिए उस्ताद का तर्ज़-ए-बयाँ पैदा करूँ