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फ़िक्र-ए-तज्दीद-ए-रिवायात-ए-कुहन आज भी है | शाही शायरी
fikr-e-tajdid-e-riwayat-e-kuhan aaj bhi hai

ग़ज़ल

फ़िक्र-ए-तज्दीद-ए-रिवायात-ए-कुहन आज भी है

महशर इनायती

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फ़िक्र-ए-तज्दीद-ए-रिवायात-ए-कुहन आज भी है
हक़-बयानी का सिला दार-ओ-रसन आज भी है

पासबानान-ए-चमन की रविश-ए-कोराना
वजह-ए-रुस्वाई-ए-आईन-ए-चमन आज भी है

मय-ए-पिंदार के दो घूँट की बर्दाश्त किसे
था जो पहले वो बहकने का चलन आज भी है

रहनुमा हैं कि सर-ए-राह अड़े बैठे हैं
कारवाँ है कि सज़ा-वार-ए-महन आज भी है

वक़्त के नब्ज़-शनासों से कहो तेज़ चलें
ख़ुद-फ़रेबों की जबीनों पे शिकन आज भी है

कर चुका है जो हर इक दौर में तिरयाक़ का काम
मेरे साग़र में वही ज़हर-ए-सुख़न आज भी है

वही 'महशर' जो निगाहों में खटकता ही रहा
अपनी बेबाक-बयानी पे मगन आज भी है