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फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है | शाही शायरी
faza mein rang se bikhre hain chandni hui hai

ग़ज़ल

फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है

इंजील सहीफ़ा

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फ़ज़ा में रंग से बिखरे हैं चाँदनी हुई है
किसी सितारे की तितली से दोस्ती हुई है

मिरी तमाम रियाज़त का एक हासिल है
वही दुआ जो तेरे नाम से जुड़ी हुई है

मैं हादसे से निकल आई हूँ मगर देखो
ज़मीन अब भी मिरे जिस्म पर पड़ी हुई है

अभी तो तू ने मिरा हाथ भी नहीं थामा
ये किस ख़बर से ज़माने में सनसनी हुई है

उदासी जोंक है ये ख़ून चूस लेती है
ये बात मैं ने कहीं और भी सुनी हुई है

मैं तेरे लम्स के जादू से ख़ूब वाक़िफ़ हूँ
वो शाख़ हूँ जो तिरे हाथ पर हरी हुई है

जो आँखें सेंक रहे हैं उन्हें ख़बर ही नहीं
यहाँ पे ख़्वाब जले हैं तो रौशनी हुई है

मैं लाल रंग लगाती थी नीले ख़्वाबों को
इसी लिए तो ये ता'बीर कासनी हुई है

वो मेरे बारे में क्या सोचता है क्या मा'लूम
ख़ुदा से मेरी मुलाक़ात सरसरी हुई है

मैं पिछले साल की तस्वीर भेज देती तुझे
मगर ये एक तरफ़ से ज़रा जली हुई है

मज़ा तो जब है कि 'इंजील' ही लगे सब को
नुज़ूल-ए-इश्क़ पे जितनी भी शाइ'री हुई है