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फ़ज़ा कि फिर आसमान भर थी | शाही शायरी
faza ki phir aasman bhar thi

ग़ज़ल

फ़ज़ा कि फिर आसमान भर थी

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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फ़ज़ा कि फिर आसमान भर थी
ख़ुशी सफ़र की उड़ान भर थी

वो क्या बदन भर ख़फ़ा था मुझ से
कि आँख भी चुप गुमान भर थी

उफ़ुक़ कि फिर हो गया मुनव्वर
लकीर सी इक कि ध्यान भर थी

वो मौज क्या टूट कर गिरी है
तो क्या ये बस इम्तिहान भर थी

वो इक फ़साना ज़बान भर था
ये इक समाअत कि कान भर थी

सबब कि अब तक वो पूछता है
मिरी उदासी कि आन भर थी

खुला समुंदर कि चाँद भर था
हवा कि शब बादबान भर थी

हमीं ने मिस्मार कर दिखाई
वो इक रुकावट चटान भर थी

शफ़क़ बनी आसमाँ में जा कर
जो ख़ूँ की बूँद इक निशान भर थी

न लौट पाया वो जानता था
कि वापसी दरमियान भर थी

किसी ग़ज़ल में न आई 'बानी'
वो इक अज़िय्यत कि जान भर थी