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फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे | शाही शायरी
faza-e-mai-kada be-rang lag rahi hai mujhe

ग़ज़ल

फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे

शहरयार

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फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे
रग-ए-गुलाब रग-ए-संग लग रही है मुझे

ये चंद दिन में क़यामत गुज़र गई कैसी
कि आज सुल्ह तिरी जंग लग रही है मुझे

मिरे मकान से दो-गाम पर है तेरी गली
ये आज सैकड़ों फ़रसंग लग रही है मुझे

नवा-ए-नग़मा भी हैं सोज़-ओ-साज़ से ख़ाली
फ़ुग़ाँ भी ख़ारिज-अज़-आहंग लग रही है मुझे

ज़रूर फिर कोई उफ़्ताद पड़ने वाली है
कि ये ज़मीन बहुत तंग लग रही है मुझे