फ़ौजियों के सर तो दुश्मन के सिपाही ले गए
हाथ जो क़ीमत लगी ज़िल्ल-ए-इलाही ले गए
जुर्म मेरा सिर्फ़ इतना था कि मैं मुजरिम न था
क़ैद तक मुझ को सुबूत-ए-बे-गुनाही ले गए
अब वही दुनिया में ठहरे अम्न-ए-आलम के अमीं
जो अमाँ की जा तक असबाब-ए-तबाही ले गए
शिकवा-ए-जलवा-नुमाई सिर्फ़ उन के लब पे है
जो तिरी महफ़िल में अपनी कम-निगाही ले गए
तुम हरम से ले गए शब की सियाही और हम
मय-कदे से भी ज़िया-ए-सुब्ह-गाही ले गए
मैं इधर 'अख़लाक़' की तक़्सीम में मसरूफ़ था
लोग उधर मेरी अदा-ए-कज-कुलाही ले गए
ग़ज़ल
फ़ौजियों के सर तो दुश्मन के सिपाही ले गए
अख़लाक़ बन्दवी