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फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है | शाही शायरी
fauj-e-mizhgan ka kuchh irada hai

ग़ज़ल

फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है

मुनीर शिकोहाबादी

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फ़ौज-ए-मिज़्गाँ का कुछ इरादा है
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ ने लाम बाँधा है

लब-ए-रंगीं को किस ने चूसा है
देख लो ये अक़ीक़ झूटा है

कौन आया छड़ी सवारी से
ने सवारी का किस की शोहरा है

दाँत खट्टे हुए अनारों के
उन का सेब-ए-ज़क़न ये मीठा है

बोसा-ए-लब दिया जो बिगड़े ग़ैर
फूट में तुम ने क़ंद डाला है

काटते हो हमारे नाम के हर्फ़
ख़ूब शोशा है ज़ोर-ए-फ़िक़रा है

वस्फ़-ए-क़द के दो-चंद हैं मज़मूँ
कोई मिस्रा नहीं है दोहरा है

दाँत कंघी का हे मगर मुझ पर
मार-ए-गेसू जो काटे खाता है

ख़ूब है वस्ल-ए-आशिक़-ओ-माशूक़
ये भी जोड़ी का एक नुस्ख़ा है

ज़ख़्म-ए-दिल पर नमक छिड़क-वाओ
ज़ाइक़ा मेरे मुँह का फीका है

ग़ैर के घर बजा रहे हो सितार
तुम ने दर-पर्दा ठाट बदला है

कोई ताज़ा कुआँ झकाएँगे
इन दिनों इख़्तिलात गहरा है

चुटकी अंगिया में तुम न टकवाओ
गोरे सीने में नील पड़ता है

बोसा होंटों का मिल गया किस को
दिल में कुछ आज दर्द मीठा है

चैन से हैं फ़क़ीर बअ'द-ए-फ़ना
क़ब्र के भी सिरहाने तकिया है

ऐ 'मुनीर' आप क्यूँ हैं आज़ुर्दा
ये तो कहिए मिज़ाज कैसा है