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फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए | शाही शायरी
fasl-e-bahaar aai hai paimana chahiye

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए

मुनीर शिकोहाबादी

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फ़स्ल-ए-बहार आई है पैमाना चाहिए
बुलबुल के साथ नारा-ए-मस्ताना चाहिए

उश्शाक़-ए-शम्अ'-ए-हुस्न को क्या क्या न चाहिए
परवाज़-ए-रंग को पर-ए-परवाना चाहिए

पीरी में रात दिन हमें पैमाना चाहिए
राशा के बदले लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चाहिए

वहशत में बात अक़्ल की सुनना न चाहिए
कानों में पम्बा-ए-कफ़-ए-दीवाना चाहिए

कंघी बनाऊँ चोब-ए-असा-ए-कलीम की
तस्ख़ीर मार-ए-गेसू-ए-जानाना चाहिए

दरिया-ए-वहदत-व-चमन-ए-दहर से हमें
दुर्र-ए-यगाना सब्ज़ा-ए-बेगाना चाहिए

आब-ओ-ग़िज़ा-ए-आशिक़-ए-दंदाँ मुहाल है
रोज़ आब-ओ-दाना-ए-दुर-ए-यक-दाना चाहिए

मैं साइल-ए-कमाल-ए-जुनूँ हूँ मिरे लिए
कजकोल कासा-ए-सर-ए-दीवाना चाहिए

असरार-ए-हक़ हैं दिल में मगर दिल है बे-ख़बर
इस गंज के लिए यही वीराना चाहिए

सैर-ए-बहिश्त चाहते हैं नश्शे में मुदाम
मस्तों को चश्म-ए-हूर का पैमाना चाहिए

गो बे-नक़ाब रहते हो पर्दे में है हिजाब
दर-पर्दा हम से आप को छुपना न चाहिए

आशिक़ बना के हम को जलाते हैं शम्अ-रू
परवाना चाहिए उन्हें परवाना चाहिए

ऐ पीर-ए-मय-फ़रोश दर-ए-तौबा की तरह
वा रोज़-ए-हश्र तक दर-ए-मय-ख़ाना चाहिए

ता-मर्ग आश्ना न हुआ एक सब्ज़ा रंग
तुर्बत पर अपनी सब्ज़ा-ए-बेगाना चाहिए

दुश्मन है वो तो तुम भी न हो दोस्त ऐ 'मुनीर'
अपना बुरा न चाहिए अच्छा न चाहिए