फ़सील-ए-जिस्म गिरा कर बिखर न जाऊँ मैं
यही ख़याल है जी में कि घर न जाऊँ मैं
बदन के तपते जहन्नम में ख़्वाहिशों का सफ़र
इसी सफ़र के भँवर में उतर न जाऊँ मैं
हुई तमाम मसाफ़त इस एक ख़्वाहिश में
कि अब वो लाख बुलाए मगर न जाऊँ मैं
बिखेर देता है कुछ और जब भी मिलता है
उसे तो वहम यही है सँवर न जाऊँ मैं
वो जिस की चाह में दुश्वार मंज़िलें तय कीं
ख़मोश उस के नगर से गुज़र न जाऊँ मैं
'नवेद' उस से मिरा रब्त लफ़्ज़ ओ मअनी का
ये राब्ता न रहे गर तो मर न जाऊँ मैं
ग़ज़ल
फ़सील-ए-जिस्म गिरा कर बिखर न जाऊँ मैं
ज़ाहिद नवेद