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फ़सील-ए-जाँ पे रक्खी थी न बाम-ओ-दर पे रक्खी थी | शाही शायरी
fasil-e-jaan pe rakkhi thi na baam-o-dar pe rakkhi thi

ग़ज़ल

फ़सील-ए-जाँ पे रक्खी थी न बाम-ओ-दर पे रक्खी थी

नाज़िर सिद्दीक़ी

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फ़सील-ए-जाँ पे रक्खी थी न बाम-ओ-दर पे रक्खी थी
ज़माने भर की बे-ख़्वाबी मिरे बिस्तर पे रक्खी थी

उभर आई थी पेशानी पे नक़्श-ए-मो'तबर बन कर
पुरानी फ़िक्र की ख़ुश्बू नए मंज़र पे रक्खी थी

नज़र उट्ठी तो बस हैरत से हम देखा किए उस को
हमारी गुम-शुदा दस्तार उस के सर पे रक्खी थी

उसी को ज़ख़्म देने पर तुला था सर-फिरा सूरज
मिरी तख़्ईल की बुनियाद जिस शहपर पे रक्खी थी

ज़मीं पर रौशनी आती रही जाती रही लेकिन
हमारी ख़ाना-वीरानी बस इक मेहवर पे रक्खी थी

पसीना मेरी मेहनत का मिरे माथे पे रौशन था
चमक लाल-ओ-जवाहर की मिरी ठोकर पे रक्खी थी

मिरे सर पर मुसलसल आग बरसाता रहा सूरज
न जाने कैसी ठंडक मेरी चश्म-ए-तर पे रक्खी थी

मिरी गर्दन जो ज़ीनत बन चुकी थी क़त्ल-गाहों की
कभी नेज़े पे रक्खी थी कभी ख़ंजर पे रक्खी थी

बदल कर पैरहन क़दमों के नीचे आ गई 'नाज़िर'
वही मिट्टी जो इक दिन दस्त-ए-कूज़ा-गर पे रक्खी थी