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फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे | शाही शायरी
farz barson ki ibaadat ka ada ho jaise

ग़ज़ल

फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे

ज़हीर काश्मीरी

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फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
बुत को यूँ पूज रहे हैं कि ख़ुदा हो जैसे

एक पुर-पेच ग़िना एक हरीरी नग़्मा
हाए वो हुस्न कि जंगल की सदा हो जैसे

इश्क़ यूँ वादी-हिज्राँ में हुआ महव-ए-ख़िराम
ख़ारज़ारों में कोई आबला-पा हो जैसे

आरिज़ों पर वो तिरे ताबिश-ए-पैमान-ए-वफ़ा
चाँदनी रात के चेहरे पे हया हो जैसे

इस तरह दाग़ दमकते हैं दिल-ए-वहशी पर
क़ैस के जिस्म पे फूलों की अबा हो जैसे

कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क
सीना-ए-ख़ाक पे महताब गिरा हो जैसे

रतजगे वो भी नशात-ए-ग़म-ए-महबूब के साथ
हुस्न वालों ने बड़ा काम किया हो जैसे

हिज्र की रात अजब रंग है पैमाने का
दस्त मय-ख़्वार में बुझता सा दिया हो जैसे

ख़ाक-ए-दिल पर तिरे सय्याल तसव्वुर का ख़िराम
रेग-ए-सहरा पे रवाँ बाद-ए-सबा हो जैसे

आज उस शोख़ की चितवन का ये आलम है 'ज़हीर'
हुस्न अपनी ही अदाओं से ख़फ़ा हो जैसे