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फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है | शाही शायरी
fareb-e-rah se ghafil nahin hai

ग़ज़ल

फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है

महेश चंद्र नक़्श

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फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है
जुनूँ गुम-कर्दा-ए-मंज़िल नहीं है

मिरी नाकामियों पर हँसने वाले
तिरे पहलू में शायद दिल नहीं है

ख़ुदा को ना-ख़ुदा कहने लगा हूँ
सफ़ीना तालिब-ए-साहिल नहीं है

तिरी बज़्म-ए-तरब में आ गया हूँ
मगर दिल को सुकूँ हासिल नहीं है

अरे उस की निगाह-ए-बे-ख़बर भी
मिरे अंजाम से ग़ाफ़िल नहीं है

मिरे ज़ौक़-ए-सफ़र का पूछना क्या
निगाहों में मिरी मंज़िल नहीं है

ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ कर्ब-ए-मर्ग से 'नक़्श'
गुज़र जाना कोई मुश्किल नहीं है