फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है
जुनूँ गुम-कर्दा-ए-मंज़िल नहीं है
मिरी नाकामियों पर हँसने वाले
तिरे पहलू में शायद दिल नहीं है
ख़ुदा को ना-ख़ुदा कहने लगा हूँ
सफ़ीना तालिब-ए-साहिल नहीं है
तिरी बज़्म-ए-तरब में आ गया हूँ
मगर दिल को सुकूँ हासिल नहीं है
अरे उस की निगाह-ए-बे-ख़बर भी
मिरे अंजाम से ग़ाफ़िल नहीं है
मिरे ज़ौक़-ए-सफ़र का पूछना क्या
निगाहों में मिरी मंज़िल नहीं है
ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ कर्ब-ए-मर्ग से 'नक़्श'
गुज़र जाना कोई मुश्किल नहीं है
ग़ज़ल
फ़रेब-ए-राह से ग़ाफ़िल नहीं है
महेश चंद्र नक़्श