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फ़रेब-ए-नव के भँवर में उतारता है मुझे | शाही शायरी
fareb-e-nau ke bhanwar mein utarta hai mujhe

ग़ज़ल

फ़रेब-ए-नव के भँवर में उतारता है मुझे

महेंद्र प्रताप चाँद

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फ़रेब-ए-नव के भँवर में उतारता है मुझे
ये कौन पिछले पहर फिर पुकारता है मुझे

शिकस्ता-हाल हूँ रंज-ओ-अलम से चूर हूँ मैं
निगाह-ए-लुत्फ़ से अब क्या सँवारता है मुझे

नज़र ये अपनी चढ़ाता हूँ जिस क़दर उस को
उसी क़दर वो नज़र से उतारता है मुझे

मैं कब का डूब चुका हूँ उसे ख़बर ही नहीं
जो साहिलों से अभी तक पुकारता है मुझे

उसी की याद है मेरी हयात का हासिल
जो बे-नियाज़ तग़ाफ़ुल से मारता है मुझे

मैं सुल्ह-ओ-अम्न का शैदाई हूँ मिरे रहबर
फ़साद-ओ-फ़ित्ना पे तू क्यूँ उभारता है मुझे

मिला है मुद्दतों के बा'द कुछ ग़रज़ होगी
किस इंकिसार से देखो निहारता है मुझे

उसे मैं ख़ास करम में शुमार करता हूँ
जो तू मराहिल-ए-ग़म से गुज़ारता है मुझे

वो चाहता है गुहर-याब हो के उभरूँ मैं
समुंदरों की जो तह तक उतारता है मुझे

पुनम की रात का ये फ़ैज़ नूर-अफ़शाँ 'चाँद'
किसी हसीन ख़ता पर उभारता है मुझे