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फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे | शाही शायरी
fareb-e-jalwa kahan tak ba-ru-e-kar rahe

ग़ज़ल

फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे

अख़्तर अली अख़्तर

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फ़रेब-ए-जल्वा कहाँ तक ब-रू-ए-कार रहे
नक़ाब उठाओ कि कुछ दिन ज़रा बहार रहे

ख़राब-ए-शौक़ रहे वक़्फ़-ए-इंतिज़ार रहे
अब और क्या तिरे वादों का ए'तिबार रहे

मैं राज़-ए-इश्क़ को रुस्वा करूँ मआज़-अल्लाह
ये बात और है दिल पर न इख़्तियार रहे

चमन में रख तो रहा हूँ बिना नशेमन की
ख़ुदा करे कि ज़माना भी साज़गार रहे

जुनूँ का रुख़ है हरीम-ए-हयात की जानिब
इलाही पर्दा-ए-औहाम-ए-ए'तिबार रहे