फ़र्द को अस्र की रफ़्तार लिए फिरती है
जिंस को गर्मी-ए-बाज़ार लिए फिरती है
पर-ए-पर्वाज़ से इंकार नहीं है लेकिन
कीजिए ग़ौर तो मिन्क़ार लिए फिरती है
उस की क़िस्मत में रसाई न सही आशिक़ को
हसरत-ए-लज़्ज़त-ए-इज़हार लिए फिरती है
तालिब-ए-इल्म को इदराक-ए-फ़ज़ीलत के बजाए
ख़्वाहिश-ए-तुर्रा-ओ-दस्तार लिए फिरती है
दोनों टाँगों का इशारा है कि गर्दिश हम को
हर तरफ़ सूरत-ए-परकार लिए फिरती है
एक लम्हे के लिए भी नहीं मिलता है सुकूँ
गर्दिश-ए-गुम्बद-ए-दव्वार लिए फिरती है
हथकड़ी जैसे लगाते हैं असीरों को वो ज़ुल्फ़
कर के हल्क़े में गिरफ़्तार लिए फिरती है
तौफ़ में फ़र्त-ए-तरब से है ज़मीं चर्ख़-ए-ज़नाँ
साया-ए-गेसू-ओ-रुख़सार लिए फिरती है
जिस्म के बोझ को आग़ाज़ से अंजाम तलक
गरचे है रूह गिराँ-बार लिए फिरती है
इस को ठहराए हुए क़स्र-ए-बक़ा की बुनियाद
ज़िंदगी साँस का इक तार लिए फिरती है
ग़ज़ल
फ़र्द को अस्र की रफ़्तार लिए फिरती है
सय्यद हामिद