फ़क़ीराना तबीअत थी बहुत बेबाक लहजा था
कभी मुझ में भी हँसता-खेलता इक शख़्स रहता था
बगूले ही बगूले हैं मिरी वीरान आँखों में
कभी इन रहगुज़ारों में कोई दरिया भी बहता था
तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मिरा अंदाज़ हँसने का कभी तेरे ही जैसा था
कभी पर्वाज़ पर मेरी हज़ारों दिल धड़कते थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुश-बाश कहता था
कभी ऐसे ही छाई थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ पर
कभी फूलों की सोहबत से मिरा दामन भी महका था
मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था
बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी ले कर
लहू से भर गईं आँखें न जाने ख़्वाब कैसा था

ग़ज़ल
फ़क़ीराना तबीअत थी बहुत बेबाक लहजा था
मनीश शुक्ला