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फ़लक के हाथों जिधर मुँह उठाए जाता हूँ | शाही शायरी
falak ke hathon jidhar munh uThae jata hun

ग़ज़ल

फ़लक के हाथों जिधर मुँह उठाए जाता हूँ

मारूफ़ देहलवी

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फ़लक के हाथों जिधर मुँह उठाए जाता हूँ
उधर से जूँ गुल-ए-बाज़ी तपांचा खाता हूँ

कभी है आँखों में ज़र दीदा पे निगह उन की
कि मैं हर एक से आँख अपनी अब चुराता हूँ

हवा के घोड़े पे जब वो सवार होते हैं
तो पा के वक़्त मैं क्या क्या मज़े उड़ाता हूँ

ख़िलाफ़ी उन के वो आँखें जो याद आती हैं
तो अपनी आँखों को रो रो के मैं सुजाता हूँ

बला से गर नहीं मिलते वो मुझ से पर 'मारूफ़'
उन्हों का शहर मैं आशिक़ तो मैं कहाता हूँ