फ़ैसला क्या हो जान-ए-बिस्मिल का
मौत रुख़ देखती है क़ातिल का
दिल-लगी है सँभालना दिल का
नासेहा काम है ये मुश्किल का
मौत भी काँप काँप उठती है
नाम सुन सुन के मेरे क़ातिल का
मिल के तलवों से हँस के कहते हैं
था ज़माने में शोर उसी दिल का
हसरतें इस पते पर आती हैं
दाग़-ए-दिल है चराग़ मंज़िल का
क्या क़रीने से गुल हैं गुलशन में
रंग उड़ाया किसी के महफ़िल का
आप को खो के तुम को ढूँढ लिया
हौसला था ये मेरे ही दिल का
बे-नक़ाब उस ने किस को देख लिया
रंग फ़क़ है जो माह-ए-कामिल का
हँस के फूलों को वो करेंगे सुबुक
रंग उड़ाएँगे हम अनादिल का
ज़िक्र-ए-ग़म बज़्म-ए-यार में 'ज़ेबा'
रंग भी देखते हो महफ़िल का
ग़ज़ल
फ़ैसला क्या हो जान-ए-बिस्मिल का
ज़ेबा