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फ़ासला रक्खो ज़रा अपनी मुदारातों के बीच | शाही शायरी
fasla rakkho zara apni mudaraaton ke bich

ग़ज़ल

फ़ासला रक्खो ज़रा अपनी मुदारातों के बीच

राशिद आज़र

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फ़ासला रक्खो ज़रा अपनी मुदारातों के बीच
दूरियाँ बढ़ जाएँगी पैहम मुलाक़ातों के बीच

क्या भरोसा कम हुआ बे-ए'तिबारी बढ़ गई
तंज़ का लहजा दर आया प्यार की बातों के बीच

तू भी मेरे अक्स के मानिंद मेरे साथ है
मैं अकेला कब रहा हूँ दुख भरी रातों के बीच

शिकवा-संजी ने ख़ुलूस-ए-इल्तिजा कम कर दिया
कुछ शिकायत भी ज़बाँ पर थी मुनाजातों के बीच

बंद दरवाज़े पे क्या 'आज़र' दुआ को हाथ उठे
या अधूरी रह गई दस्तक तिरे हाथों के बीच