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एक वहशत है रहगुज़ारों में | शाही शायरी
ek wahshat hai rahguzaron mein

ग़ज़ल

एक वहशत है रहगुज़ारों में

शौकत परदेसी

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एक वहशत है रहगुज़ारों में
क़ाफ़िले लुट गए बहारों में

साज़ ख़ामोश आरज़ू बीमार
कोई नग़्मा नहीं है तारों में

इस तरफ़ भी निगाह-ए-दुज़्दीदा
हम भी हैं ज़िंदगी के मारों में

ये तो इक इत्तिफ़ाक़ है वर्ना
आप और मेरे ग़म-गुसारों में

आदमी आदमी न बन पाया
बस्तियाँ लुट गईं इशारों में

देख कर वक़्त के तग़य्युर को
चाँद सहमा हुआ है तारों में

थे कभी रूह-ए-अंजुमन 'शौकत'
अब तो हैं अजनबी से यारों में