एक तो तिरी दौलत था ही दिल ये सौदाई 
तिस उपर क़यामत है बे-कसी ओ तन्हाई 
तेरे तईं तो लाज़िम था तौबा का सबब पूछे 
मय-कशी से ऐ साक़ी गो कि हम क़सम खाई 
दिल तो एच-पेचों से दाम-ए-ख़त के छूटा था 
ज़ुल्फ़ फिर नए सर से सर उपर बला लाई 
जी तो बे-क़रारी से जाँ-ब-लब है ऐ नासेह 
को तहम्मुल ओ ताक़त सब्र और शकेबाई 
उम्र-ए-आशिक़-ओ-माशूक़ सर्फ़-ए-नाज़-ओ-हैरत है 
हुस्न है अदा-पर्दाज़ इश्क़ है तमाशाई 
रात उस की महफ़िल में सर से जल के पाँव तक 
शम्अ की पिघल चर्बी उस्तुखाँ निकल आई 
हस्ब-ए-हाल 'हातिम' है शेर-ए-'मीरज़ा-मज़हर' 
उस से फिर ज़ियादा कुछ है इबारत-आराई 
''दिल हमेशा मी-ख़्वाहद तौफ़-ए-कू-ए-जानाँ रा 
हाए बे-पर-ओ-बाली वाए ना-तवानी''
        ग़ज़ल
एक तो तिरी दौलत था ही दिल ये सौदाई
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

