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एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ | शाही शायरी
ek to kawish-e-jigar bhi karun

ग़ज़ल

एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ

नदीम अहमद

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एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
और फिर मिन्नत-ए-समर भी करूँ

इश्क़ में ख़ैर था जुनूँ लाज़िम
अब कोई दूसरा हुनर भी करूँ

सोचता हूँ तिरे तआक़ुब में
ख़ुद को रुस्वा-ए-बाल-ओ-पर भी करूँ

पहले बिन-माँगे ज़िंदगी दे दी
और फिर शर्त है बसर भी करूँ

शेर लिक्खूँ भी और लोगों में
शायरी अपनी मुश्तहर भी करूँ

लफ़्ज़ ओ मअ'नी का जब्र झेलूँ भी
और फिर ख़ुद को मो'तबर भी करूँ

काम कुछ बे-सबब भी कर डालूँ
और कुछ काम सोच कर भी करूँ