एक था शख़्स ज़माना था कि दीवाना बना
एक अफ़्साना था अफ़्साने से अफ़्साना बना
इक परी-चेहरा कि जिस चेहरे से आईना बना
दिल कि आईना-दर-आईना परी-ख़ाना बना
ख़ेमा-ए-शब में निकल आता है गाहे गाहे
एक आहू कभी अपना कभी बेगाना बना
है चराग़ाँ ही चराग़ाँ सर-ए-आरिज़ सर-ए-जाम
रंग-ए-सद-जल्वा-ए-जानाना सनम-ख़ाना बना
एक झोंका तिरे पहलू का महकती हुई याद
एक लम्हा तिरी दिलदारी का क्या क्या न बना
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ग़ज़ल
एक था शख़्स ज़माना था कि दीवाना बना
मख़दूम मुहिउद्दीन