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एक-तरफ़ा बे-ख़ुदी में गुम हुआ रहता हूँ मैं | शाही शायरी
ek-tarfa be-KHudi mein gum hua rahta hun main

ग़ज़ल

एक-तरफ़ा बे-ख़ुदी में गुम हुआ रहता हूँ मैं

जमील यूसुफ़

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एक-तरफ़ा बे-ख़ुदी में गुम हुआ रहता हूँ मैं
बे-महाबा फ़ासलों को नापता रहता हूँ मैं

मेरे ख़द-ओ-ख़ाल को पहचानना आसाँ नहीं
रास्ते की गर्द में अक्सर अटा रहता हूँ मैं

जानता हूँ ढूँढता हूँ इक सराब-ए-नूर को
फिर भी उस की खोज में पैहम लगा रहता हूँ मैं

कारवान-ए-शौक़ जिस को ज़िंदगी कहते हो तुम
इस तग-ओ-दौ के जिलौ में ही सदा रहता हूँ मैं

हज़रत-ए-वाइज़ तुझे मेरा पता क्यूँकर मिले
जिस्म के का'बे में मानिंद-ए-ख़ुदा रहता हूँ मैं