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एक तन्हा ख़ातिर-ए-महज़ूँ जिसे अफ़्कार सौ | शाही शायरी
ek tanha KHatir-e-mahzun jise afkar sau

ग़ज़ल

एक तन्हा ख़ातिर-ए-महज़ूँ जिसे अफ़्कार सौ

मीर असर

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एक तन्हा ख़ातिर-ए-महज़ूँ जिसे अफ़्कार सौ
एक मुझ बीमार से वाबस्ता हैं आज़ार सौ

है तअज्जुब नोक-ए-मिज़्गाँ से जो ख़ूँ-आलूदा हूँ
ख़ूँ-गिरफ़्ता एक दिल और ख़ंजर-ए-खूँ-ख़्वार सौ

मू-ब-मू क्यूँ-कर न हो मुझ को गिरफ़्तारी-ए-ज़ुल्फ़
काफ़िर-ए-इश्क़-ए-बुताँ मैं एक और ज़ुन्नार सौ

दू-ब-दू कब हो सकें उस के 'असर' है आँख नार
क्या हुआ, हैं देखने कहने को गर अग़्यार सौ