EN اردو
एक सूरज को सुरख़-रू कर के | शाही शायरी
ek suraj ko suraKH-ru kar ke

ग़ज़ल

एक सूरज को सुरख़-रू कर के

शगुफ़्ता यासमीन

;

एक सूरज को सुरख़-रू कर के
लौट आई हूँ उस को छू कर के

बे-ग़रज़ आज तक मिला न कोई
थक गई मैं भी जुस्तुजू कर के

ज़हर का जाम ही पिलाएँगे
लोग मीठी सी गुफ़्तुगू कर के

मुझ पे उँगली उठाइए लेकिन
आइना अपने रू-ब-रू कर के

तेरी यादें मिरी इबादत हैं
सोचती हूँ तुझे वुज़ू कर के

तेरी जानिब चले हैं दीवाने
अपने ज़ख़्मों को फिर रफ़ू कर के

हम ने दिल से पुकारा उस को ग़ज़ल
अपने चेहरे को क़िबला-रू कर के