एक सूरज का क्या ज़िक्र है कहकशाएँ चलीं
मैं चला तो मिरे साथ सारी दिशाएँ चलीं
आगे आगे जुनूँ था मिरा गर्द उड़ाता हुआ
पीछे पीछे मिरे आँधियों की बलाएँ चलीं
कोई ज़ंजीर टूटी थी या दिल की आवाज़ थी
दाएरे से बनाई हुई क्यूँ सदाएँ चलीं
मैं चला तो हर इक चीज़ ठहरी हुई सी लगी
मैं रुका तो ये धरती चली ये फ़ज़ाएँ चलीं
इक शहादत-नुमा तिश्नगी थी मुक़द्दर मिरा
मैं जिधर भी गया साथ में कर्बलाएँ चलीं
जाने किस के रसीले लबों के महक लाई थीं
ज़ख़्म आवाज़ देने लगे जब हवाएँ चलीं
उन से मिलने का मंज़र भी दिल-चस्प था ऐ 'असर'
इस तरफ़ से बहारें चलीं और उधर से खिज़ाएँ चलीं
ग़ज़ल
एक सूरज का क्या ज़िक्र है कहकशाएँ चलीं
इज़हार असर