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एक शय थी कि जो पैकर में नहीं है अपने | शाही शायरी
ek shai thi ki jo paikar mein nahin hai apne

ग़ज़ल

एक शय थी कि जो पैकर में नहीं है अपने

शरीफ़ अहमद शरीफ़

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एक शय थी कि जो पैकर में नहीं है अपने
जिस को देते हो सदा घर में नहीं है अपने

तुझे पाने की तमन्ना तुझे छूने का ख़याल
ऐसा सौदा भी कोई सर में नहीं है अपने

तू ने तलवार भी देखी निगह-ए-यार भी देख
ये तब-ओ-ताब तो ख़ंजर में नहीं है अपने

किस क़बीले से उड़ा लाई है फ़ौज-ए-आदा
ऐसा जर्रार तो लश्कर में नहीं है अपने

सर-निगूँ जिस की फ़क़ीरी के मुक़ाबिल शाही
अब वो शय मर्द-ए-क़लंदर में नहीं है अपने

लाख कीजे तलब-ए-राहत-ओ-आराम 'शरीफ़'
क्या मिलेगा जो मुक़द्दर में नहीं है अपने